राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से लेकर देश के छोटे-बड़े अन्य शहरों की आबोहवा दूषित होती जा रही है। आलम यह है कि जैव विविधता के मामले में आदिकाल से धनी रहे भारत जैसे देश के अधिकांश शहर आज प्रदूषण की भारी चपेट में है। पर्यावरणीय संकेतों तथा विकास के सततपोषणीय स्वरूप की अवहेलना कर अनियंत्रित आर्थिक विकास की हमारी तत्परता का नतीजा है कि कई शहरों में प्रदूषण का स्तर मानक से ऊपर जाता दिख रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में 13 शहर भारत के हैं। प्रदूषित शहरों की फेहरिस्त में दिल्ली, ग्वालियर, इलाहाबाद, पटना, रायपुर, कानपुर और लखनऊ जैसे शहर शीर्ष पर विराजमान हैं, जबकि अन्य शहरें भी भूमि, वायु और जल प्रदूषण से लहूलुहान हैं।
इन शहरों में आधुनिक जीवन
का चकाचौंध तो है, लेकिन
कटु सत्य यह भी
है कि यहाँ इंसानी
जीवनशैली नर्क के समान
हो गई है। विडंबना
देखिए, पर्यावरण में चमत्कारिक रूप
से विद्यमान तथा जीवन प्रदान
करने वाली वायु आज
प्रदूषित होकर मानव जीवन
के लिये खतरनाक और
कुछ हद तक जानलेवा
हो गई है। पर्यावरण
से निरंतर छेड़छाड़ तथा विकास की
अनियंत्रित भौतिक भूख ने आज
इंसान को शुद्ध पर्यावरण
से भी दूर कर
दिया है। शुद्ध ऑक्सीजन
की प्राप्ति मानव जीवन जीने
की प्रथम शर्त है। लेकिन,
जीवनदायिनी वायु में जहर
घुलने से समस्त मानव
जीवन अस्तव्यस्त हो गया है।
लोग शुद्ध हवा में सांस
लेने के लिये तरसते
नजर आ रहे हैं।
एक अमेरिकी शोध संस्था ने
दावा किया है कि
वायु प्रदूषण भारत में पाँचवाँ
सबसे बड़ा हत्यारा है।
गौरतलब है कि वायु
प्रदूषण के कारण विश्व
में 70 लाख, जबकि भारत
में हर साल 14 लाख
लोगों की असामयिक मौतें
हो रही हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट
में कहा गया है
कि विश्व में 10 व्यक्तियों में से नौ
खराब गुणवत्ता की हवा में
सांस ले रहे हैं।
इधर, कुछ दिनों से
मीडिया में छाई रही
दिल्ली की धुंध की
खबरों ने देशवासियों तथा
हुक्मरानों को गहरे अवसाद
में डाल दिया है।
पर्यावरण क्षेत्र से जुड़ी प्रमुख
संस्था सीएसई ने कहा कि
राष्ट्रीय राजधानी में पिछले 17 वर्षों
में सबसे खतरनाक धुंध
छाई हुई है। वायु
प्रदूषण बढ़ने के कारण राजधानी
में स्वास्थ्य आपातकाल जैसी स्थिति बनी
हुई है। बच्चों, बूढ़ों
और सांस संबंधी बीमारियों
से जूझ रहे लोगों
के लिये वातावरण का
यह स्वरूप आफत बनकर सामने
आया है।
स्कूलों के असमय बंद
होने से बच्चों की
शिक्षा भी बाधित हो
रही है, जबकि अगले
कुछ माह बाद बोर्ड
तथा अन्य कक्षाओं की
परीक्षाएं आयोजित की जाएंगी और
नवंबर-दिसंबर ही वह समय
होता है, जब सिलेबस
तेजी से खत्म कराने
के प्रयास किए जाते हैं।
यह सब हमारी ही
करनी का नतीजा है,
लिहाजा इन विपरीत परिस्थितियों
से लड़ने के लिये
खुद को तैयार करना
होगा।विशेषज्ञ बता रहे हैं
कि दिल्ली की फिजाओं में
जहर घुलने के पीछे कई
कारण उत्तरदायी रहे हैं। अलबत्ता
इसकी शुरुआत तब से ही
हो गई थी, जब
दिल्ली से सटे कुछ
राज्यों में अदालती और
प्रशासनिक आदेशों के बावजूद पराली
को जलाने की शुरुआत हुई
थी। जबकि, सर्दी के आगमन और
दीवाली पर अनियंत्रित पटाखेबाजी
ने हालात को बद से
बदतर बना दिया।
बीते दिनों जिस तरह जागरूकता
के तमाम अभियानों को
धता बताते हुए तथा पर्यावरण
को नजरअंदाज करते हुए देशवासियों
ने दीवाली पर आतिशबाजी की
है, उससे यह साफ
हो गया कि वास्तव
में यहाँ किसी को
पर्यावरण की फिक्र ही
नहीं है। सभी को
अपनी क्षणिक आवश्यकता व कथित आनंद
के प्राप्ति की चिंता है,
लेकिन दिनोंदिन मैली हो रही
पर्यावरण की तनिक भी
परवाह नहीं। सवाल यह है
कि धरती पर जीवन
के अनुकूल परिस्थितियों के लिये आखिर
हमने छोड़ा क्या। हमारे
स्वार्थी कर्मों का नतीजा है
कि हवा, जल, भूमि
तथा भोजन सभी प्रदूषित
हो रहे हैं। पौधे
हम लगाना नहीं चाहते और
जो लगे हैं, उसे
विकास के नाम पर
काटे जा रहे हैं।
ऐसे में हमें धरती
पर जीने का कोई
नैतिक हक ही नहीं
बनता।
हर साल अक्टूबर और
नवंबर माह में पंजाब,
हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर
प्रदेश में किसानों द्वारा
धान की फसल की
कटाई के बाद उसके
अवशेषों यानी पराली को
जलाने का सिलसिला शुरू
हो जाता है। नई
फसल की जल्द बुवाई
करने के चक्कर में
किसान पराली को अपने खेतों
में ही जला देते
हैं। यह क्रम साल
दर साल चलता रहता
है। हमारे किसान इस बात से
अंजान रहते हैं कि
इस आग से, एक
ओर जहाँ पर्यावरण में
जहर घुल रहा है,
वहीं खेतों में मौजूद भूमिगत
कृषि-मित्र कीट तथा सूक्ष्म
जीवों के मरने से
मृदा की उर्वरता घटती
जाती है, जिससे अनाजोत्पादन
प्रभावित होता है, लेकिन
कर्ज में डूबे किसानों
को इतना सोचने का
वक्त कहाँ है! अमेरिकी
कृषि वैज्ञानिकों की मानें तो
भारत में अन्नोत्पादन में
कमी का एक बड़ा
कारण वायु प्रदूषण है।
वैज्ञानिकों का यह भी
कहना है कि यदि
भारत वायु प्रदूषण का
शिकार न हो तो
अन्न उत्पादन में वर्तमान से
50 प्रतिशत अधिक तक की
वृद्धि हो सकती है।
पराली जलाने से वायुमंडल में
कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड और मिथेन आदि
विषैली गैसों की मात्रा बहुत
अधिक बढ़ जाती हैं।
अनुमान है कि एक
टन पराली जलाने पर हवा में
3 किलो कार्बन कण, 60 किलो कार्बन मोनोऑक्साइड,
1500 किलो कार्बन डाइऑक्साइड, 200 किलो राख और
2 किलो सल्फर डाइऑक्साइड फैलते हैं। इन सब
दुष्प्रभावों को ध्यान में
रखकर ही दिल्ली उच्च
न्यायालय तथा उनके आदेश
पर संबंधित राज्य सरकारों ने पराली के
जलाने पर कागजी रोक
लगाई थी।
इन सबसे बेफिक्र हमारे
किसान चुपके से या रात्रि
में पराली जलाने से बाज नहीं
आए। पराली का बहुतायत में
जलाया जाना, राष्ट्रीय राजधानी में प्रदूषण बढ़ने
की प्रमुख वजह बन गई
है। एक तरह से
देखा जाए तो देश
में पर्यावरण प्रदूषण की चिंता सब
को है। पर, न
तो कोई इसके लिये
पौधे लगाना चाहता है, न ही
अपनी धुआँ उत्सर्जन करने
वाली गाड़ी की जगह
सार्वजनिक बसों का प्रयोग
करना और न ही
उसके स्थान पर साइकिल की
सवारी को महत्त्व देना
चाहता है। परिवार बड़ा
हो तो दो-तीन
बाइक और परिवार रिहायशी
हो तो चार पहिया
वाहन भी आराम से
देखने को मिल जाएंगे।
स्वाभाविक है, आर्थिक उदारीकरण
और दिनोंदिन बढ़ती आय ने आरामतलब
जिंदगी के शौकीन लोगों
को परिवहन के निजी साधनों
के बहुत करीब ला
दिया है। नागरिकों के
इस महत्वाकांक्षा के कारण पर्यावरण
की बलि चढ़ रही
है।
दिनोंदिन प्रदूषित व अशुद्ध होते
वातावरण में चंद मिनटों
की चैन की सांस
लेना दूभर होता जा
रहा है। सुबह पौ
फटने के साथ ही
सड़क पर वाहनों को
फर्राटा मारकर धूल उड़ाने का
जो सिलसिला शुरू होता है,
वह देर रात तक
चलता रहता है। इस
नारकीय स्थिति में जाम में
फंसा व्यक्ति ध्वनि और वायु प्रदूषण
की चपेट में आकर
बेवजह अपने स्वास्थ्य का
नुकसान कर बैठता है।
काम पर जाने वाले
लोगों के लिये अब
यह रोज की बात
हो गई है। लोगों
का एक-दूसरे को
उपदेश देने और स्वयं
उसके पालन न करने
की पारंपरिक आदतों ने आज पर्यावरण
को उपेक्षा के गहरे गर्त
में धकेल दिया है।
पर्यावरण संरक्षण से संबंधित सारी
चर्चाएं महज लेखों, बातों
और सोशल मीडिया तक
ही सीमित रह गई हैं।
अगर वास्तव में लोगों को
पर्यावरण की इतनी फिक्र
होती तो दशकों से
प्रतिवर्ष मनाए जाने वाले
जल दिवस, पृथ्वी दिवस और पर्यावरण
दिवस महज रस्म अदायगी
के त्यौहार तक सीमित नहीं
रह जाते। व्यवहार के धरातल पर
पृथ्वी को बचाने की
कोशिश की गई होती
तो आज हमारे पर्यावरण
की यह दुर्गति नहीं
हुई होती। नगरीकरण की राह तेजी
में बढ़ रहे हमारे
शहरों में भौतिक जीवन
जरूर सुखमय हुआ है, किंतु
खुला, स्वच्छ और प्रेरक वातावरण
नवीन पीढ़ियों की पहुँच से
दूर, बहुत दूर होता
जा रहा है। कालांतर
में हमारी नई पीढ़ी प्राकृतिक
संसाधनों तथा स्वच्छ परिवेश
से इतर घुटन भरी
जिंदगी जीने को विवश
होगी। आधुनिक जीवन का पर्याय
बन चुके औद्योगीकरण और
नगरीकरण की तीव्र रफ्तार
के आगे हमारा पर्यावरण
बेदम हो गया है।
यह भी स्पष्ट है
कि अगर इसकी सुध
न ली गई तो
हमारे अस्तित्व की समाप्ति पर
पूर्णविराम लग जाएगा। अब
विचार हमें स्वयं करना
है कि हम एकाधिकारवादी
औद्योगिक विकास की राह चलें
कि धारणीय और सततपोषणीय विकास
का मार्ग पकड़ स्वस्थ और
स्वच्छ परिवेश का निर्माण करें।
विकास जरूरी तो है, पर
ध्यान रहे कि प्राकृतिक
संकेतों को तिलांजलि देते
हुए अंधाधुंध विकास, विनाश के जनन को
उत्तरदायी होता है। जिस
आर्थिक विकास की नोक पर
आज का मानव विश्व
में सिरमौर बनने का सपना
हृदय में संजोए है,
वह एक दिन मानव
सभ्यता के पतन का
कारण बनेगा। भावी पीढ़ी और
पर्यावरण का ध्यान रखे
बिना प्राकृतिक संसाधनों के निर्ममतापूर्वक दोहन
से पारिस्थितिक तंत्र की प्रकृति बदल
रही है। ऐसे में
चिंता हर स्तर पर
होनी चाहिए। न सिर्फ सरकारी,
बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर भी।
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