वायु प्रदूषण और इसका नियंत्रण
हम श्वसन सम्बन्धी आवश्यकताओं के लिये वायु
पर निर्भर करते हैं। वायु
प्रदूषक सभी जीवों को
क्षति पहुँचाते हैं। वे फसल
की वृद्धि एवं उत्पाद कम
करते हैं और इनके
कारण पौधे अपरिपक्व अवस्था
में मर जाते हैं।
वायु प्रदूषक मनुष्य और पशुओं के
श्वसन तंत्र पर काफी हानिकारक
प्रभाव डालते हैं। ये हानिकारक
प्रभाव प्रदूषकों की सान्द्रता उद्भासन-काल और जीव
पर निर्भर करते हैं।
ताप विद्युत संयंत्रों के धूम्र स्तम्भ
(स्मोकस्टैकस), कणिकीय धूम्र और अन्य उद्योगों
से हानिकर गैसें जब नाइट्रोजन, ऑक्सीजन
आदि के साथ (पारटिकुलेट)
और गैसीय वायु प्रदूषक भी
निकलते हैं। वायुमण्डल में
इन अहानिकारक गैसों को छोड़ने से
पहले इन प्रदूषकों को
पृथक करके या निस्यांदित
(फिल्टर्ड) कर बाहर निकाल
देना चाहिए।
कणिकीय पदार्थों को निकलने के
कई तरीके हैं, सबसे अधिक
व्यापक रूप से जो
तरीका अपनाया जाता है वह
है स्थिर वैद्युत अवक्षेपित्र (इलेक्ट्रोस्टैटिक प्रेसिपेटेटर) है, जो ताप
विद्युत संयंत्र के निर्वात्तक (इगजॉस्ट)
में मौजूद 99 प्रतिशत कणिकीय पदार्थों को हटा देता
है। इसमें एक इलेक्ट्रोड तार
होता है जिससे होकर
हजारों वोल्ट गुजरता है जो कोरोना
उत्पन्न करता है और
इससे इलेक्ट्रॉन निकलते हैं। ये इलेक्ट्रॉन
धूल के कणों से
सट जाते हैं और
इन्हें ऋण आवेश (नेगेटिव
चार्ज) प्रदान करते हैं। संचायक
पट्टिकाएँ नीचे की ओर
आ जाती हैं और
आवेशित धूल कणों को
आकर्षित करती हैं। पट्टिकाओं
के बीच वायु वेग
(वेलॉसिटि) काफी कम होना
चाहिए जिससे कि धूल नीचे
गिर जाये। मार्जक (स्क्रबर) नामक संरचना सल्फर
डाइआॅक्साइड जैसी गैसों को
हटा सकती है। मार्जक
में यह निर्वात जल
या चूने की फुहार
से होकर गुजरता है।
हाल ही हमने कणिकीय
पदार्थ, जो बहुत ही
छोटे होते हैं और
अवक्षेपित्र द्वारा हटाए नहीं जा
सकते, के खतरों को
अनुभव किया है। केन्द्रीय
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार 2.5 माइक्रोमीटर
या कम व्यास के
आकर (पी एम 2.5) के
कणिकीय पदार्थ मानव स्वास्थ्य के
लिये सबसे अधिक नुकसानदेह
हैं। साँस अन्दर लेते
समय ये सूक्ष्म कणिकीय
पदार्थ फेफड़ों के भीतर चले
जाते हैं और इनसे
जैसे श्वसन संलक्षण उत्तेजना, शोथ और फेफड़ों
की क्षति तथा अकाल मृत्यु
हो सकती है।
खासकर महानगरों में स्वचालित वाहन
वायुमंडल प्रदूषण के प्रमुख कारण
हैं। जैसे-जैसे सड़कों
पर वाहनों की संख्या बढ़ती
है यह समस्या अन्य
शहरों में भी पहुँच
रही है। स्वचालित वाहनों
का रखरखाव उचित होना चाहिए।
उनमें सीसा रहित पेट्रोल
या डीजल का प्रयोग
होने से उत्सर्जित प्रदूषकों
की मात्रा कम हो सकती
है। उत्प्रेरक परिवर्तक (कैटालिटिक कनवर्टर) में कीमती धातु,
प्लेटिनम-पैलेडियम और रोडियम लगे
होते हैं जो उत्प्रेरक
(कैटेलिस्ट) का कार्य करते
हैं। ये परिवर्तक स्वचालित
वाहनों में लगे होते
हैं जो विषैले गैसों
के उत्सर्जन को कम करते
हैं। जैसे ही निर्वात
उत्प्रेरक परिवर्तक से होकर गुजरता
है अद्ग्ध हाइड्रो कार्बन डाइआॅक्साइड और जल में
बदल जाता है और
कार्बन मोनोआॅक्साइड तथा नाइट्रिक आॅक्साइड
क्रमश: कार्बन डाइआॅक्साइड और नाइट्रोजन गैस
में परिवर्तित हो जाता है।
उत्प्रेरक परिवर्तक युक्त मोटर वाहनों में
सीसा रहित (अनलेडेड) पेट्रोल का उपयोग करना
चाहिए, क्योंकि सीसा युक्त पेट्रोल
उत्प्रेरक को अक्रिय करता
है।
वाहन वायु प्रदूषण का
नियंत्रण - दिल्ली में किया गया
एक अध्ययन
वाहनों
की संख्या काफी अधिक होने
के कारण दिल्ली में
वायु प्रदूषण का स्तर देश
में सबसे अधिक है।
यहाँ पर वाहनों की
संख्या गुजरात और पश्चिम बंगाल
में कुल मिलाकर जितने
वाहन हैं या उससे
अधिक है। सन 1990 के
एक आँकड़ों के अनुसार दिल्ली
का स्थान विश्व के 41 सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में चौथा है।
दिल्ली में वायु प्रदूषण
का मामला इतना खतरनाक हो
गया कि भारत के
सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित
याचिका (पीआईएल) दायर की गई।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसकी कड़ी निन्दा
की गई और न्यायालय
ने भारत सरकार से
एक निश्चित अवधि में उचित
उपाय करने का आदेश
दिया साथ ही, यह
भी आदेश दिया कि
सभी सरकारी वाहनों यानी बसों में
डीजल के स्थान पर
सम्पीडित प्राकृतिक गैस (सीएनजी) का
प्रयोग किया जाये। वर्ष
2002 के अन्त तक दिल्ली
की सभी बसों को
सीएनजी में परिवर्तित कर
दिया गया। आप पूछ
सकते हैं कि सीएनजी
डीजल से बेहतर क्यों
है। इसका उत्तर है
कि वाहन में सीएनजी
सबसे अच्छी तरह जलता है
और बहुत ही कम
मात्र में जलने से
बच जाता है जबकि
डीजल या पेट्रोल के
मामले में ऐसा नहीं
है। इसके अलावा यह
पेट्रोल या डीजल से
सस्ता है। चोर इसकी
चोरी नहीं कर सकता
और पेट्रोल तथा डीजल की
तरह इसे अपमिश्रित नहीं
किया जा सकता। सीएनजी
में परिवर्तित करने में मुख्य
समस्या इसे वितरण स्थल/पम्प तक ले
जाने के लिये पाइप
लाइन बिछाने की कठिनाई को
लेकर और इसकी अबाधित
सप्लाई करने की है।
साथ-ही-साथ दिल्ली
में वाहन प्रदूषण को
कम करने के जो
अन्य उपाय किये गए
हैं वे ये हैं
पुरानी गाड़ियों को धीरे-धीरे
हटा देना, सीसा रहित पेट्रोल
और डीजल का प्रयोग,
कम गंधक (सल्फर) युक्त पेट्रोल और डीजल का
प्रयोग, वाहनों में उत्प्रेरक परिवर्तकों
का प्रयोग, वाहनों के लिये कठोर
प्रदूषण स्तर लागू करना
आदि।
भारत सरकार ने एक नई
वाहन ईंधन नीति के
तहत यहाँ के शहरों
में वाहन प्रदूषण को
कम करने के लिये
मार्गदर्शी सिद्धान्त निर्धारित किया है। ईंधन
के लिये अधिक कठोर
मानक बनाए गए हैं
ताकि पेट्रोल और डीजल ईंधनों
में धीरे-धीरे गंधक
और एरोमेटिक की मात्र कम
की जाये। उदाहरण के लिये, यूरो
III मानक के अनुसार डीजल
और पेट्रोल में गंधक भी
नियंत्रित कर क्रमशः 350 और
150 पार्ट्स प्रति मिलियन (पीपीएम) करना चाहिए। सम्बन्धित
ईंधन में एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन
42 प्रतिशत पर सीमित करना
चाहिए। मार्गदर्शी के अनुसार पेट्रोल
और डीजल में गंधक
को कम कर 50 पीपीएम
पर लाकर लक्ष्य को
35 प्रतिशत के स्तर पर
लाना चाहिए। ईंधन के अनुरूप
वाहन के इंजनों में
भी सुधार करना पड़ेगा। उत्सर्जन
मानक (भारत स्टेज II, जो
यूरो-II मानक के तुल्य
है) अब भारत के
किसी भी नगर में
लागू नहीं है। भारत
में उत्सर्जन मानकों का नवीनतम विवरण
तालिका 16-1 में दिया गया
हैः
दिल्ली में
किये गए इस प्रयासों
को धन्यवाद, जिसके कारण यहाँ की
वायु की गुणवत्ता में
काफी सुधार हुआ। एक आकलन
के अनुसार सन 1997-2005 तक दिल्ली में
CO और SO2 के स्तर में
काफी गिरावट आई है।
भारत में वायु प्रदूषण
निरोध एवं नियंत्रण अधिनियम
1981 में लागू हुआ, लेकिन
इसमें 1987 में संशोधन कर
शोर को वायु प्रदूषण
के रूप में सम्मिलित
किया गया। शोर (नॉइज)
एक अवांछित उच्च स्तर ध्वनि
है। हम आनन्द और
मनोरंजन के लिये तेज
ध्वनि के आदी हो
गए हैं, लेकिन यह
नहीं सोचते कि इसके कारण
मानव में मनोवैज्ञानिक और
कार्यकीय या शरीर क्रियात्मक
विकार (डिसऑर्डर) पैदा होते हैं।
जितना बड़ा शहर उतना
ही बड़ा उत्सव और
उतना ही अधिक शोर!
किसी जेट वायुयान या
रॉकेट के उड़ान के
समय उत्पन्न अति उच्च ध्वनि
स्तर 150 डेसिबल या इससे अधिक
स्तर की ध्वनि को
थोड़े ही समय तक
सुनने से कर्ण-पटह
(इअर ड्रम) क्षतिग्रस्त हो सकता है।
इस प्रकार व्यक्ति की सुनने की
क्षमता सदा के लिये
नष्ट हो सकती है।
शहरों की अपेक्षाकृत निम्न
ध्वनि स्तर के दीर्घकालिक
उद्भासन के कारण भी
हमारी सुनने की क्षमता स्थायी
रूप से क्षतिग्रस्त हो
सकती है। शोर के
कारण अनिद्रा, हृद-स्पंद (हर्ट
बीटिंग) का बढ़ जाना,
श्वसन के तरीके में
परिवर्तन आदि से मनुष्य
पीड़ित हो सकता है,
जिसके कारण वह काफी
तनाव की स्थिति में
रहता है।
यह जानते हुए कि शोर
प्रदूषण के कई खतरनाक
प्रभाव होते हैं, क्या
आप अपने आस पास
के अनावश्यक ध्वनि प्रदूषण के स्रोत का
पता लगा सकते हैं,
जिसे किसी को आर्थिक
हानि पहुँचाए बिना तत्काल कम
किया जा सकता है?
हमारे उद्योगों में ध्वनि-अवशोषक
पदार्थ का प्रयोग कर
या ध्वनि ढककर इसे कम
किया जा सकता है।
अस्पताल और स्कूल के
आस पास हॉर्न-मुक्त
जोन का सीमांकन, पटाखे
और लाउडस्पीकर के लिये अनुमेय
ध्वनि-स्तर, लाउडस्पीकर के लिये समय-सीमा तय करके,
ताकि उसके बाद इसका
प्रयोग नहीं किया जा
सकता है, आदि के
बारे में कठोर कानून
बनाकर और उसे लागू
कर ध्वनि प्रदूषण से अपनी रक्षा
कर सकते हैं।
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